क्या अब तुमसे भी कुछ बोलूँ मैं ?
मुँह पर बंधी पट्टियां खोलूं मैं ?
जन्म लेते ही होंठ सिल दिए गए मेरे ,
किताबों का बोझ भी न उठाने दिया ।
पैरों में बंधी पायल ने घर के पार न होने दिया।
सोलहवें जन्मदिन पर साइकिल मांगी तो ,
बर्तनों का सेट थमा दिया।
जब आंखों ने झुकना सीख लिया और,
हाथों ने सीख ली मजदूरी,
बिठा दी गयी मैं पाउडर पोत बीच बाज़ार में।
कुछ न देखा मैंने, सिर्फ सुना....
हंसी, ठहाके और सवालों के बौछार ।
पिता फूले न समाते : पढ़ा लिखा सरकारी नौकर
और क्या चाहिए?
आंखों पे बेबसी कि पट्टियों ने सुनाई
हर अबला कि दास्तान,
बोली में दहेज़ के गिरते उठते दाम ।
कहाँ मैं गुड्डे गुडियों कि नज़र उतारती थी,
और आज खेल खेल में ब्याह दी गयी।
दीवार पर टंगी किसी पुरानी तस्वीर कि तरह,
उतार दी गयी ।
डोली चढ़ जिस सपनों के महल उतरी,
वह सपनों के टूटने पर ढह गया।
चुभते टुकडों कि चोट से बोझिल कदम
उठा न पायी मैं,
देहरी उस कैद की लाँघ न पायी मैं।
सर्वस्व लुटा कर भी सुख न पाया मैंने,
घर अपना लोग पराये, यही पाया मैंने।
अपने धाम की खोज में आज तुम तक आई हूँ,
भेंट के लिए और कुछ नहीं, प्राण संग लायी हूँ।
न मैं सरस्वती, न चंडिका, न लक्ष्मी का अवतार
मैं हूँ केवल एक स्त्री जिसने किया संसार का विस्तार।
हर नारी पर अब इतनी कृपा कर दीजो
अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो।
3 comments:
nIce n StrOng PLoT.......bEAutIFUlly crAfted A gEnuiNE IssUE...........keeP iT uP...
kudos to you both....
I mean Alec for designing such a sophistically simple blog and selecting "Arpi" as the team member ......
And Arpi as usual for writing such a wonderful poetry. Whatt a mesmerising flow of emotions.!!!!!
Keep up the good work. I recently saw "laga chunari me daag.." quite thought provoking. Must watch after this particular poetry of yours Arpi!!!!! ;)
and yes, my comment.... haha, i got many compliments from my friends,who thought that i had written this poem, as it is on my blog, and they didn't have the funda of group members....
anyways, a very sento poem, i must say.And yes,nice use of words...
thnx arpi, for writing on my blog.
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